डिक्री (decree) की परिभाषा-

भारतीय न्याय प्रणाली में शब्द जो कई बार सुनने  में आता है वह है डिक्री (decree)| वैसे तो डिक्री (decree) शब्द को सिविल प्रकिया संहिता 1908 की धारा 2 (2) में परिभाषित किया गया है जिसके के अनुसार डिक्री (decree) से ऐसे न्याय निर्णयन की प्रारूपिक अभिव्यक्ति अभिप्रेत है,जो जहाँ तक की वह उसे अभिव्यक्त करने वाले न्यायालय से संबंधित है, वाद के सभी या किन्ही विवादग्रस्त विषयो के संबंध में पक्षकारो के अधिकारों का निश्चायक रूप से अवधारण करती है और वह डिक्री (decree) या तो प्रारभिक या अंतिम हो सकती है | इसके अंतर्गत वादपत्र का ख़ारिज किया जाना और सिविल प्रकिया संहिता की धारा 144 के अंतर्गत किसी प्रश्न का अवधारण आता है किन्तु इसके अन्तर्गत न तो ऐसा न्याय निर्णयन आएगा जिसकी अपील आदेश की अपील की तरह होती है और न व्यतिक्रम के लिए ख़ारिज करने का कोई आदेश आएगा |
डिक्री (decree) तब प्रांरभिक होती है, जब वह वाद को पूर्ण रूप से निपटा दिए जाने से पहले उसमे आगे और कार्यवाही की जानी हो | वह तब अन्तिम होती है जब ऐसा न्यायनिर्णयन वाद को पूर्ण रूप से निपटा देता है |

डिक्री (decree) के आवश्यक तत्व –

अगर डिक्री(decree) की परिभाषा का विश्लेषण किया जाये तो इसके निम्न आवश्यक तत्व निकलते है –
(1) न्यायालय द्वारा एक न्यायनिर्णयन(an adjudication);
(2) वाद में न्यायनिर्णयन;
(3) वाद में विवादग्रस्त सभी या किन्ही विषयो के सम्बन्ध में पक्षकारो के अधिकारों का अवधारण;
(4) अवधारण का निश्चयात्मक होना;
(5) न्यायनिर्णयन की एक औपचारिक अभिव्यक्ति |

(1) न्यायालय द्वारा न्यायनिर्णयन- न्यायनिर्णयन (adjudication) एक न्यायालय द्वारा होना चाहिए | न्यायालय का निर्णय दो प्रकार का हो सकता है, या तो डिक्री(decree) के रूप में होगा या आदेश के रूप में, पर वह एक साथ दोनों नहीं हो सकता | कोई भी निर्णय जो एक ऐसे अधिकारी द्वारा दिया जाता है जो न्यायालय के रूप में नहीं बैठता है डिक्री(decree) की सीमा में नहीं आता है | रेलवे दावा अधिकरण एक दीवानी न्यायालय नहीं है |

(2) वाद में न्यायनिर्णयन- न्यायालय द्वारा न्याय निर्णयन किसी वाद में होना चाहिए | यहाँ यह प्रश्न स्वभाविक रूप से उठता है की वाद किसे कहते है ? वाद की परिभाषा सिविल प्रक्रिया संहिता में कही नहीं दी गयी है लेकिन प्रिवी कौंसिल ने 1935 में हंसराज बनाम देहरादून मसूरी इलेक्ट्रिक ट्रामवेज़ कम्पनी लिमिटेड नामक वाद में इसे परिभाषित करने का प्रयास किया | प्रिवी कौंसिल के अनुसार वाद शब्द का अभिप्राय किसी विशेष सन्दर्भ से भिन्न, साधारणतया ऐसी दीवानी कार्यवाही से है जो वाद -पत्र प्रस्तुतिकरण द्वारा संस्थित की जाती है | लेकिन यह परिभाषा आंशिक रूप से ही सत्य प्रतीत होती है क्योकि ऐसी विधिक कार्यवाहियाँ जिनका प्रारम्भ मात्र प्रार्थना – पत्र देने से होता है फिर भी ऐसी कार्यवाहियों को वाद की संज्ञा दी जाती है | उदारण के लिए भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 295 के अंतर्गत प्रतिविरोधात्मक प्रोबेट कार्यवाही या भारतीय विवाचन अधिनियम 1940 की धारा 20 के अंतर्गत माध्यस्थम करार दाखिल करने से सम्बंधित कार्यवाही या हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धाराएं 9,10,11 या 13 के अंतर्गत कार्यवाही, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 की धारा 26 के अंतर्गत कार्यवाही आदि | इस प्रकार डिक्री(decree) का सम्बन्ध वाद से है | किसी वाद में ही न्यायालय का निर्णयन डिक्री(decree) की संज्ञा ले सकता है |

(3) वाद में विवादग्रस्त सभी या किन्ही विषयो के सम्बन्ध में पक्षकारो के अधिकारों का अवधारण – ऐसे न्याय निर्णयन के माध्यम से विवादग्रस्त विषयो में से किसी एक या सभी के सम्बन्ध में पक्षकारो के अधिकारों का अवधारण अवश्य होना चाहिए | इस प्रकार एक वाद में विचाराधीन प्रश्न यह है की विवादित मकान पर कब्ज़ा मकान -मालिक या किरायेदार का है, न्यायालय का निर्णय पक्षकारो के अधिकारों पर हो और ऐसा निर्णय डिक्री(decree) होगा | परन्तु वाद में न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय पक्षकारो के अधिकारों पर निर्णय नहीं है तो उसे डिक्री(decree) नहीं कहा जा सकता | उदारणस्वरूप, वाद के ख़ारिज करने का आदेश ( हाजिर होने की चूक के लिए ), अभियोजन न करने के आधार पर निष्पादन में मुकदमे को ख़ारिज करने का आदेश होने का एक आदेश, व अकिंचन के रूप में वाद दायर करने की छूट न देने का आदेश | पक्षकारो से अभिप्राय वाद के पक्षकारो से है तथा किसी अन्य व्यक्ति के विषय में लिया गया निर्णय डिक्री(decree) नहीं होगा |

“विवादग्रस्त विषय “ से अभिप्राय मात्र यह नहीं है की वे केवल वाद के गुणों से ही सम्बंधित है, अपितु उसके अंतर्गत वाद दायर करने वाले पक्षकार के चरित्र और हैसियत से, अदालत की अधिकारिता से, मुकदमे के कायम होने की योग्यता से और दूसरे प्रारंभिक विषयो से जो वाद की जाँच के पहले ही निर्णय को आवश्यक बना देते है, से सम्बंधित कोई भी विषय आ सकता है | परन्तु वादग्रस्त विषय में किसी वाद को दायर करने की प्रारम्भिक कार्यवाही शामिल नहीं है|

पक्षकारो के अधिकारों से अभिप्राय उनके सारभूत अधिकारों से है न की प्रक्रिया सम्बन्धी अधिकारों से | इस प्रकार किसी वाद में विवादित प्रश्न यह हो की अमुक सम्पति में से किसका वास्तविक कब्ज़ा है, प्रश्न सारभूत अधिकारों से सम्बंधित है | परन्तु विवादित प्रश्न यह हो की पक्षकारो में से किसी को समन विधिवत तामील हुआ है या नहीं, प्रश्न सारभूत अधिकारों से सम्बंधित न होकर प्रक्रियात्मक अधिकारों से सम्बंधित होगा | ऐसे अधिकारों में हैसियत, अधिकारिता, मियाद (limitation), के वाद के आकर, लेखा आदि सामान्य अधिकारों का समावेश होता है |

जहाँ एक वाद कब्जे के प्रत्युद्धरण और अन्तकालीन लाभ के लिए दाखिल किया गया और वाद में अन्तकालीन लाभ के लिए निर्देश दिया गया, वहाँ कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कमिशनर ऑफ़ इंटरटेनमेंट टैक्स बनाम मित्रा सिनेमा में अभिनिर्धारित किया की अन्तकालीन लाभ का दावा एक सारवान दावा है और अन्तकालीन लाभ पाने का अधिकार एक सारभूत अधिकार है और ऐसे अधिकार पर अवधारण एक डिक्री(decree) है |

(4) अवधारण का निश्चयात्मक होना- किसी भी वाद में न्यायालय द्वारा पक्षकारो के अधिकारों पर अवधारण (determination) निश्चयात्मक होना चाहिए | दूसरे शब्दों में, निर्णय देने वाले न्यायालय के सन्दर्भ में वह अवधारण पूर्ण एवं अंतिम होना चाहिए | यदि कोई ऐसा प्रश्न जिस पर की निर्णय लिया जाना है, विनिश्चय के लिए खुला रहे जाता है तो वह डिक्री(decree) नहीं हो सकता | उदाहरणार्थ, न्यायालय के द्वारा अपनी अन्तनिहित शक्ति के अधीन किसी मामले का प्रतिप्रेषण जिसमे किसी मामले को अन्तिम रूप में निर्णीत न कर निचले न्यायालय पर छोड़ देना निश्चयात्मक अवधारण नहीं होगा |

(5) न्यायनिर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति- न्याय-निर्णयन की एक औपचारिक अभिव्यक्ति होनी चाहिए | निर्णय के औपचारिक अभिव्यक्ति से अभिप्राय उन अनुतोषो में से किसी या सभी को स्वीकार करने या अस्वीकार करने से है जिनका वाद पत्र में दावा किया गया है और जो औपचारिक घोषणा में दिए गए है |

जहाँ विचारण न्यायालय ने आदेश पारित करके यह कहा की वाद परिसीमा विधि द्वारा वर्जित है (barred by limitation) और ख़ारिज करने योग्य है, वहाँ पद ख़ारिज करने योग्य से अभिप्राय यह है की वाद ख़ारिज कर दिया गया है और यह वाद की खारिजी की औपचारिक अभिव्यक्ति के बराबर है| दूसरे शब्दों में वाद का ऐसी िस्थति में ख़ारिज किया जाना न्यायालय की एक औपचारिक अभिव्यक्ति है | वाद का इस आधार पर ख़ारिज किया जाना की वह परिसीमा विधि से वर्जित है एक अन्तिम न्याय- निर्णयन है और इसके विरुद्ध अपील हो सकती है |

निष्कर्ष-

जिस किसी निर्णय में उपरोक्त सभी तत्व मौजूद हो उसे डिक्री(decree) कहा जाता है | साथ ही साथ डिक्री (decree)की परिभाषा में ऐसा निर्णय, जिसके माध्यम से न्यायालय वाद पत्र अस्वीकार करता है, भी आता है | मूलवादी की मृत्यु के बाद यह विनिश्चय किया जाना की वाद संस्थित करने का अधिकार नहीं है | यही नहीं न्यायालय के द्वारा किया गया किसी भी प्रश्न का अवधारण जो सिविल प्रकिया संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत किया गया है, वह भी   डिक्री(decree) की परिभाषा में आता है | यहाँ यह भी बता देना असंगत नहीं होगा की सिविल प्रकिया संहिता में 1976 के संशोधन से पहले यह डिक्री शब्द की परिभाषा में नहीं आता था | लेकिन किसी डिक्री की परिभाषा में निम्नलिखित नहीं आएगा-
(अ) न तो कोई ऐसा न्याय निर्णयन जिसकी अपील आदेश की अपील की तरह होती है, और
(ब) न तो व्यतिक्रम के लिए ख़ारिज करने का कोई आदेश |

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